Thursday, September 11, 2025
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अपने जीवन का पिंडदान कर साधु बनते हैं नागा, 4000 नागाओं ने भगवान को बचाया

144 साल बाद बने महासंयोग के साथ इस बार का महाकुंभ विशेष है। पौष पूर्णिमा के पहले स्नान के साथ इसकी भव्य शुरुआत हुई। अनुमान है कि इस अवसर पर करीब 1 करोड़ श्रद्धालुओं ने पवित्र गंगा में डुबकी लगाकर अपने पापों से मुक्ति की कामना की।

1. नागा साधु कौन होते हैं और कैसे बनते हैं?
2. शंकराचार्य ने क्यों बनाए थे अखाड़े?
3. देश में कितने अखाड़े हैं और किनसे लिया लोहा? 

नई दिल्ली: लगभग 1700 साल पहले, जब सिंध में मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद बिन कासिम ने भारत पर हमला किया, उस समय दक्षिण भारत में एक महान संत का उदय हो रहा था। वे थे आदि गुरु शंकराचार्य। आठवीं सदी में जन्मे आदि शंकराचार्य ने भारत की सनातन संस्कृति पर मंडरा रहे हूणों, शकों, बौद्धों, और इस्लाम के खतरे को भांपते हुए पूरे भारत की पैदल यात्रा की। उन्होंने देश के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना की, जिससे धर्म और संस्कृति को मजबूती मिली।

शंकराचार्य ने साधुओं की एक ऐसी सेना तैयार करने का आह्वान किया, जो शस्त्र और शास्त्र दोनों में निपुण हो। कहा जाता है कि नागा साधु के एक हाथ में माला और दूसरे में भाला होना चाहिए। धर्म की रक्षा के लिए यह संत सेना अनिवार्य मानी गई। नागा साधु कठोर तपस्वी होते हैं, जिनका उद्देश्य धर्म की रक्षा और आध्यात्मिक मूल्यों का प्रचार करना है।

जीवित रहते किया जाता है अपना श्राद्ध और पिंडदान

ये नागा साधु हिमालय की ऊंची पहाड़ियों, गुफाओं और कंदराओं में तपस्या करते हैं। लेकिन जब भी कुंभ मेला या माघ मेला आयोजित होता है, तो ये साधु वहां आते हैं। राख से शरीर को ढककर, वे ईश्वर और अध्यात्म पर गहन चर्चा करते रहते हैं। इन साधुओं का जीवन बहुत कठिन होता है। वे अपने जीते जी अपना श्राद्ध और पिंडदान कर लेते हैं। इसके अलावा, ये 12 साल तक कठोर तपस्या करते हैं। इस तपस्या के बाद, कुंभ स्नान के पश्चात ही इन्हें नागा साधु का प्रतिष्ठित दर्ज प्राप्त होता है।

अखाड़े किसे कहते थे, और कैसे अस्तित्व में आए? 

इसका मतलब यह है कि अगर शास्त्रों के अनुसार समस्या का समाधान नहीं निकला, तो शस्त्र यानी हथियार उठाए जाएंगे। “अखाड़ा” शब्द का मूल अर्थ कुश्ती है, लेकिन यहां इसका मतलब यह है कि साधुओं को योद्धाओं के रूप में प्रशिक्षित किया गया। जब भी सनातन धर्म और संस्कृति पर संकट आया, ये अखाड़े एकजुट होकर मैदान में उतरे। मध्यकाल से लेकर 1857 तक, इन अखाड़ों ने राजनीतिक संघर्ष और दांवपेंचों का हिस्सा बने रहकर अपनी भूमिका निभाई।

गोकुल के लिए अब्दाली से भिड़े 4 हजार नागा साधु

शंकराचार्य ने अखाड़ों से यह अपील की थी कि मठों, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पड़ने पर शक्ति का उपयोग किया जाए। इस तरह, बाहरी आक्रमणों के समय में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार, जब विदेशी आक्रमण का खतरा मंडराता था, स्थानीय राजा-महाराजा नागा योद्धा साधुओं से मदद लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई सम्मानजनक युद्धों का उल्लेख मिलता है, जिनमें 4 हजार से अधिक नागा योद्धाओं ने भाग लिया। जब अफगान आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली ने मथुरा-वृंदावन के बाद गोकुल पर हमला किया, तो उस समय 4 हजार नागा साधुओं ने उसकी 30 हजार मुस्लिम-अफगानी सेना को परास्त कर दिया और भगवान श्री कृष्ण के गोकुल की रक्षा की।

शंकराचार्य ने स्थापित कीं ये चार पीठें

दरअसल, शंकराचार्य को यह एहसास हुआ कि उस समय की सामाजिक उथल-पुथल का सामना केवल आध्यात्मिक शक्ति से नहीं किया जा सकता। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि युवा साधु केवल आत्मा की साधना ही नहीं, बल्कि शारीरिक रूप से भी मजबूत हों और हथियार चलाने में भी दक्षता हासिल करें। इसके लिए उन्होंने ऐसे मठों की स्थापना की, जहां शारीरिक अभ्यास और शस्त्र संचालन की शिक्षा दी जाती थी। इन्हें बाद में अखाड़ा कहा जाने लगा। शंकराचार्य ने चार प्रमुख पीठों की स्थापना की—ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ, द्वारिका शारदा पीठ और पुरी गोवर्धन पीठ। इन पीठों पर आसीन संन्यासी को शंकराचार्य कहा जाता है।

कश्मीर से कन्याकुमारी तक धर्म का प्रचार था मुख्य उद्देश्य

आचार्य शंकर के वैदिक धर्म के प्रचार में ये अखाड़े अग्रणी रहे हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक धर्म का प्रसार करने में इनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। इन अखाड़ों के प्रमुख महामंडलेश्वर होते हैं। कुंभ मेला इन अखाड़ों के लिए सबसे बड़ा पर्व होता है, क्योंकि यहीं पर नागा संन्यासी बने जाते हैं। नागा साधु मुख्य रूप से कंद-मूल, फल-फूल आदि का आहार लेते हैं और कुंभ के दौरान वे सिर्फ एक बार भोजन करते हैं। इन साधुओं के शरीर पर कोई वस्त्र नहीं होता और वे हमेशा धूनी की राख लपेटे रहते हैं।

भारत में 13 अखाड़े, 14वां किन्नरों के लिए समर्पित

सनातन धर्म का अंतिम उद्देश्य पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना है। इसका मतलब है कि बार-बार धरती पर जन्म लेने से छुटकारा पाना। यह विश्वास किया जाता है कि कुंभ स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। देश में कुल 13 प्रमुख अखाड़े हैं, और इनमे एक किन्नर अखाड़ा भी शामिल है, जो 14वां है। इन अखाड़ों के प्रमुखों को महामंडलेश्वर कहा जाता है, जिन्हें आमतौर पर ईश्वर के रूप में पूजा जाता है।

अखाड़ों का विभाजन: शैव, वैष्णव और उदासीन समूह

भारत में 13 अखाड़ों को तीन प्रमुख संप्रदायों में बांटा जा सकता है: शैव, वैष्णव और उदासीन। शैव संप्रदाय में नागा साधुओं का एक बड़ा समूह होता है, और इसमें कुल 7 अखाड़े शामिल हैं – महा निर्वाणी, जूना, अटल, अग्नि, आवाह्न, निरंजनी और आनंद। हालांकि शैव संप्रदाय के लोग आदि शंकर के अद्वैत सिद्धांत को मानते हैं, लेकिन ये शारीरिक रूप से शिव की पूजा करते हैं। वैष्णव संप्रदाय में तीन अखाड़े होते हैं – निर्मोही, दिगंबर और निर्वाणी। उदासीन संप्रदाय के दो अखाड़े हैं – बड़ा उदासीन और नया उदासीन। इसके अलावा, 13वां अखाड़ा सिख समुदाय से संबंधित है, जिसे निर्मल पंचायती अखाड़ा कहा जाता है।

क्या है पेशवाई और शाही जुलूस के बीच का फर्क?

कुंभ मेले के दौरान 13 अखाड़ों के दो प्रमुख प्रकार के जुलूस होते हैं – एक को पेशवाई और दूसरे को शाही जुलूस कहा जाता है। पेशवाई में इन अखाड़ों के जुलूस अपने मुख्य स्थल से शुरू होकर गंगा के किनारे स्थित अपने आश्रमों तक सज-धजकर यात्रा करते हैं। वहीं, शाही जुलूस मकर संक्रांति और मौनी अमावस्या जैसे विशेष दिनों पर होता है, जब यह जुलूस भी विशेष आभूषणों और ध्वजों के साथ सज-धजकर यात्रा करते हैं।

1906 में अखाड़ों के संघर्ष के बाद चौकस हुआ प्रशासन

1906 में अखाड़ों के बीच प्रथम स्थान को लेकर तीव्र संघर्ष हुआ था, जिसके बाद से प्रशासन किसी भी प्रकार की झड़प को रोकने के लिए सतर्क रहता है। यह सुनिश्चित किया जाता है कि आम लोग इन जुलूसों के रास्ते में न आए, इसलिए प्रशासन इनके मार्ग को साफ करता है। अखाड़ा परिषद यह निर्णय करती है कि कौन पहले स्नान करेगा। इसके साथ ही, यह परिषद प्रशासन के सहयोग से अखाड़ों के किसी भी विवाद का समाधान भी करती है।

नागा संन्यासी कैसे बनते हैं? जानें पूरी कहानी

कुंभ मेले में जो साधु नागा संन्यासी बनना चाहते हैं, उन्हें 12 साल की कठिन साधना करनी पड़ती है। महाकुंभ के दौरान इन साधुओं की तपस्या पूरी होती है और दीक्षा प्राप्त होती है। इसके बाद, कुंभ में उन्हें श्वेत वस्त्र पहनाए जाते हैं और फिर उन्हें तीन दिनों तक गायत्री मंत्र का जाप करना होता है। इसके बाद उनका मुंडन संस्कार होता है और साथ ही उनका श्राद्ध कर्म और पिंडदान भी संपन्न किया जाता है। पिंडदान के दिन ही आचार्य महामंडलेश्वर उस साधक को नागा होने की दीक्षा प्रदान करते हैं। इसके बाद ही वह साधक कुंभ स्नान में सम्मिलित होने का अधिकारी बनता है।

नागा साधुओं के 17 श्रृंगार: जानिए उनके महत्वपूर्ण प्रतीक

आमतौर पर महिलाओं के 16 श्रृंगार की चर्चा होती है, लेकिन नागा साधु 17 श्रृंगार करते हैं। इनमें शामिल हैं- भभूत, लंगोट, चंदन, पैरों में लोहे या चांदी का कड़ा, पंचकेश, अंगूठी, कमर में बांधने के लिए फूलों की माला, हाथों में चिमटा, माथे पर रोली का लेप, डमरू, कमंडल, गुंथी हुई जटा, तिलक, काजल, हाथों का कड़ा, विभूति का लेप और रुद्राक्ष।

नागा साधु के निधन के बाद की महत्वपूर्ण रस्में

नागा साधु का श्राद्धकर्म और पिंडदान जीते जी कर लिया जाता है, इसलिए उनकी मृत्यु के बाद पारंपरिक दाह-संस्कार नहीं किया जाता। इनका शव या तो गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है, या फिर इसे समाधि में बदल दिया जाता है। उनका परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति होता है।

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