नागा साधुओं का इतिहास और महत्
‘नागा’ शब्द संस्कृत के ‘नग’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है पहाड़। पहाड़ों और गुफाओं में निवास करने वाले साधु नागा कहलाते हैं। 9वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने दशनामी संप्रदाय की स्थापना की। अधिकांश नागा साधु इसी संप्रदाय से जुड़े होते हैं। दीक्षा के समय इन्हें दस नामों में से एक नाम दिया जाता है। ये नाम हैं – गिरी, पुरी, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम, और सरस्वती। इस कारण नागा साधुओं को ‘दशनामी’ भी कहा जाता है।
नागा साधुओं के प्रकार
नागा साधु दो प्रकार के होते हैं – शास्त्रधारी और शस्त्रधारी। शास्त्रधारी साधु पूरी तरह आध्यात्मिक मार्ग पर चलते हैं, जबकि शस्त्रधारी नागा साधु आत्मरक्षा और धर्म की रक्षा के लिए हथियारों का प्रशिक्षण लेते हैं।
शस्त्रधारी नागाओं की शुरुआत
मुगल आक्रमणों के दौरान धर्म और समाज की रक्षा के लिए शस्त्रधारी नागा साधुओं की परंपरा शुरू की गई। हालांकि, शुरुआत में कुछ साधुओं ने इसे आध्यात्मिक मार्ग के विपरीत मानते हुए विरोध किया। लेकिन बाद में शृंगेरी मठ ने एक सैनिक शाखा का गठन किया और नागा साधुओं को शस्त्र-अस्त्र का प्रशिक्षण दिया। प्रारंभ में इसमें केवल क्षत्रिय शामिल होते थे, लेकिन बाद में यह परंपरा सभी जातियों के लिए खुली कर दी गई।
नागा साधु न केवल आध्यात्मिकता के प्रतीक हैं, बल्कि धर्म, संस्कृति, और समाज की रक्षा के प्रतीक भी हैं
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महिलाएं भी नागा साधु बनती हैं। महिला नागा साधु को नागिन, अवधूतनी या माई कहा जाता है। ये वस्त्रधारण करती हैं। हालांकि कुछ चुनिंदा महिला नागा वस्त्र त्यागकर भभूत को ही वस्त्र बना लेती हैं। जूना अखाड़ा देश का सबसे बड़ा और पुराना अखाड़ा है। ज्यादातर महिला नागा इसी से जुड़ी हैं।
2013 में पहली बार इससे महिला नागा जुड़ीं थीं। सबसे ज्यादा महिला नागा इसी अखाड़े में हैं। इसके अलावा आह्वान अखाड़ा, निरंजन अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा, अटल अखाड़ा और आनंद अखाड़े में भी महिला नागा हैं।
सबसे सीनियर महिला नागा संन्यासी को अखाड़े में श्रीमहंत कहा जाता है। श्रीमहंत चुनी गई माई को शाही स्नान के दिन पालकी में लाया जाता है। उन्हें अखाड़े की ध्वजा और डंका लगाने का अधिकार होता है।
महिला नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया भी पुरुष नागा साधुओं जैसी ही है। अंतर बस इतना है कि ब्रह्मचर्य पालन के लिए पुरुषों का जननांग निष्क्रिय किया जाता है, जबकि महिलाओं को ब्रह्मचर्य के पालन का संकल्प लेना होता है।
नागा साधुओं का श्रृंगार: आध्यात्मिकता और शक्ति का प्रतीक
नागा साधु अपने विशिष्ट श्रृंगार और परिधान के लिए प्रसिद्ध हैं, जो उनकी आध्यात्मिक और भौतिक तपस्या का प्रतीक होते हैं। उनके श्रृंगार में शामिल मुख्य पहलू निम्नलिखित हैं:
- भस्म का लेप
नागा साधु अपने पूरे शरीर पर भस्म (राख) का लेप लगाते हैं। यह भस्म अग्नि में जले हुए हवन सामग्री या गोबर से तैयार की जाती है। यह न केवल पवित्रता का प्रतीक है, बल्कि यह सांसारिक मोह-माया से मुक्ति को दर्शाता है। - जटाएं (लंबे बाल)
नागा साधु अपनी जटाओं को बढ़ाकर रखते हैं। ये जटाएं उनके संयम, तप और साधना का प्रतीक मानी जाती हैं। जटाएं अकसर गूंथी हुई होती हैं और कई बार सिर पर मुकुट के समान बांधी जाती हैं। - रुद्राक्ष और माला
नागा साधु रुद्राक्ष की माला या तुलसी की माला पहनते हैं, जो भगवान शिव और आध्यात्मिकता से उनके गहरे संबंध को दर्शाती है। - त्रिशूल और डमरू
त्रिशूल भगवान शिव का प्रतीक है और नागा साधुओं का प्रमुख अस्त्र होता है। इसे वे शक्ति और साहस के प्रतीक के रूप में अपने साथ रखते हैं। डमरू, जो शिव का वाद्य यंत्र है, उनके साथ रहता है और उनकी साधना का हिस्सा है। - कमंडल और चिमटा
कमंडल जल रखने के लिए उपयोग किया जाता है और तपस्वियों की पहचान मानी जाती है। चिमटा, जो अक्सर लोहे का बना होता है, एक अन्य साधु-संन्यासियों के उपकरण के रूप में देखा जाता है। - कपड़े का त्याग
नागा साधु सामान्यत: नग्न रहते हैं या कम से कम कपड़े पहनते हैं। यह उनके सांसारिक बंधनों से मुक्ति और सादगी का प्रतीक है। - आभूषण और गहने
नागा साधु कई बार चांदी या अन्य धातु के आभूषण पहनते हैं। ये आभूषण उनकी तपस्या और धार्मिक परंपराओं का हिस्सा होते हैं। - भव्य भंगिमा
उनके चेहरे पर चंदन या भस्म से त्रिपुंड और अन्य धार्मिक चिह्न बनाए जाते हैं, जो उनकी भक्ति और तपस्या को दर्शाते हैं।
नागा साधुओं का श्रृंगार उनके अद्वितीय जीवन और साधना का प्रतीक है, जो उन्हें आम लोगों से अलग बनाता है और उनकी आध्यात्मिक गहराई को दर्शाता है।