महाकुंभ 2025: मंत्र, शस्त्र, शास्त्र, त्याग और वैराग्य वे मूल तत्व हैं जो नागा साधु (Naga Sadhus) की जीवन पद्धति का हिस्सा होते हैं। ये साधु शैव होते हैं, जो शिव की भक्ति और वैराग्य की शक्ति में डूबे रहते हैं। संसार को नश्वर मानते हुए इन तपस्वियों का जीवन प्रकृति से एकाकार होता है, और उनकी दीक्षा की प्रक्रिया भी अत्यंत अद्भुत है। नागा साधुओं से जुड़े रहस्य वाकई रोमांचक हैं। प्रयागराज में चल रहे महाकुंभ (Maha Kumbh) में हजारों संकल्पित अवधूत नागा साधु के रूप में अपने जीवन के महान परिवर्तन से गुजर रहे हैं।
नागा साधुओं का सबसे पुराना और सबसे बड़ा श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा है, जहां रविवार को तड़के हजारों संन्यासियों ने दीक्षा ली। इस दीक्षा को अखाड़े के आचार्य स्वामी अवधेशानंद गिरि ने प्रदान किया। नागा साधु बनने का मतलब है सांसारिकता के बंधनों से मुक्ति और अपने पुराने जीवन की समाप्ति। यह वैराग्य की उच्चतम अवस्था है, जिसमें प्रवेश करने वाले व्यक्ति अपनी सात पीढ़ियों सहित खुद का पिंडदान करते हैं। यह पूरी तरह से संसार से विरक्ति के संकल्प का प्रतीक है, जबकि सामान्यतः किसी की मृत्यु पर उसका पिंडदान उसके वंशज करते हैं।
संन्यासी बनने का अर्थ है अग्नि, वायु, जल और प्रकाश में विलीन हो जाना
श्रीपंचदशनाम जूना अखाड़ा की आचार्य पीठ ने एक्स पर एक पोस्ट में लिखा, “संन्यास का वास्तविक अर्थ है – कामनाओं का सम्यक न्यास। अतः संन्यासी होना, अर्थात् अग्नि, वायु, जल और प्रकाश में रूपांतरित हो जाना। संन्यासी का प्रत्येक क्षण परमार्थ और आत्मोन्नति के लिए समर्पित होता है। भारत की वैदिक सनातनी संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत की दिव्य अभिव्यक्ति “महाकुंभ प्रयागराज – 2025” के अंतर्गत जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर अनंतश्री विभूषित पूज्यपाद श्री स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज द्वारा सनातन हिंदू धर्म और संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु मध्यरात्रि में श्री पंचदशनाम जूना अखाड़े के नागा संन्यासियों को बड़ी संख्या में “संन्यास दीक्षा” प्रदान की गई।”
नागा संन्यासी अपने कठोर तपस्या और संयम के लिए प्रसिद्ध होते हैं। वे सांसारिक वासनाओं से परे रहते हैं और पूरी तरह से आत्म साधना में लीन रहते हैं। नागा दीक्षा लेने वाले को संसार के सभी रिश्तों, नाम, पहचान को त्यागकर एक नया जीवन शुरू करना पड़ता है। नागा साधु त्रिशूल और अन्य धार्मिक प्रतीक धारण करते हैं, जो उनकी आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक होते हैं। नागा साधु बनने की प्रक्रिया में गुरू की उपस्थिति और आशीर्वाद अत्यंत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि गुरू के मार्गदर्शन से ही साधु अपने आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होते हैं।
समाज कल्याण हेतु कठिन वैराग्य का मार्ग
नागा साधुओं की विशेषता यह है कि वे समाज से नाता तो तोड़ लेते हैं, लेकिन उनकी तपस्या और साधना का मुख्य उद्देश्य समाज का कल्याण होता है। संन्यासी का जीवन हर पल परमार्थ को समर्पित होता है। नागा दीक्षा एक कठिन और गहन साधना प्रक्रिया है, जो 48 घंटे में पूरी होती है। इस प्रक्रिया में गंगा के तट पर अवधूतों का मुंडन और जनेऊ संस्कार होता है, साथ ही उन्हें पिंडदान और अन्य संस्कार भी कराए जाते हैं।
जूना अखाड़े के आचार्य स्वामी अवधेशानंद गिरि महाराज ने रविवार को आधी रात में नागा संन्यासियों को दीक्षा प्रदान की। इससे पहले, शनिवार को नागा साधु बनने वाले साधकों ने संगम घाट पर अपने और अपनी सात पीढ़ियों का पिंडदान किया।
अपने साथ सात पीढ़ियों का पिंडदान भी करना पड़ा
नागा साधु बनने से पहले साधकों को अवधूत की दीक्षा प्राप्त करनी होती है। इसके अंतर्गत प्रयागराज के संगम पर उन्होंने 17 पिंड बनाए, जिनमें से 16 उनके पूर्वजों की सात पीढ़ियों के थे और एक पिंड उनका खुद का था। रविवार को तड़के आचार्य अवधेशानंद गिरि महाराज ने उन्हें मंत्र दीक्षा दी। नागा दीक्षा की प्रक्रिया धर्म ध्वजा के नीचे तपस्या और संस्कारों के साथ 24 घंटे पहले शुरू हो गई थी। इस दौरान साधकों ने बिना भोजन-पानी के तपस्या की। बाद में, उन्हें गंगा के तट पर ले जाकर 108 डुबकियां लगवाई गईं, और फिर विजय हवन किया गया। अगले चरण में 29 जनवरी को मौनी अमावस्या के दिन तड़के अवधूत नागा साधु के रूप में उन्हें दीक्षा प्राप्त होगी।
वैराग्य की गहरी भावना की परीक्षा
Naga Sadhu बनने की आयु 17 से 19 वर्ष के बीच होती है। नागा साधुओं की तीन श्रेणियां होती हैं – महापुरुष, अवधूत, और दिगंबर। एक इच्छुक व्यक्ति को नागा साधु बनने से पहले पूरी तरह से परखा जाता है। अधिकांश मामलों में इच्छुक व्यक्ति को पहले अखाड़े से वापस भेज दिया जाता है। यदि वह अपनी इच्छा पर अडिग रहता है और समझाने के बावजूद भी नहीं मानता, तो उसकी पूरी जांच की जाती है। अखाड़ा उसके परिवार, चरित्र और व्यवहार की गहराई से पड़ताल करता है और परिवार को भी सूचित करता है कि वह नागा साधु बनने की इच्छा रखता है। जब वह हर जांच में खरा उतरता है, तब उसे स्वीकृति मिलती है।

नागा साधु बनने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति के लिए एक परीक्षण अवधि तय की जाती है। अगर इस अवधि में उसकी इच्छाशक्ति मजबूत रहती है, तो वह संन्यास लेने के लिए प्रतिज्ञा लेता है और उसे ‘महापुरुष’ घोषित किया जाता है। इस दौरान उसके पंच संस्कार होते हैं, जिनमें शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश को गुरु बनाना होता है। इसके बाद उसे नारियल, भगवा कपड़े, जनेऊ, रुद्राक्ष, भभूत और नागा साधुओं के प्रतीक व आभूषण दिए जाते हैं। अंत में, अखाड़े के गुरु उसे कटारी से शिष्य की चोटी काट कर दीक्षा प्रदान करते हैं।
सांसारिक बंधनों से आज़ादी की यात्रा
नागा साधु बनने की प्रक्रिया में पहले वे महापुरुष की श्रेणी में होते हैं, उसके बाद दूसरी श्रेणी में अवधूत बनते हैं। उनकी दीक्षा के दौरान तड़के साधना करने के बाद उन्हें नदी तट पर ले जाया जाता है, जहां उनका सिर और शरीर के सारे बाल काट दिए जाते हैं। स्नान के बाद, उन्हें नई लंगोटी पहनाई जाती है और गुरु उन्हें जनेऊ, दंड, कमंडल और भस्म सौंपते हैं। इसके बाद, साधु अपनी सात पीढ़ियों और खुद का पिंडदान करके सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाते हैं, और उनका नया जीवन अखाड़े में शुरू होता है। आधी रात को विजया यज्ञ होता है, फिर गुरु उन्हें मंत्र प्रदान करते हैं। अगले दिन तड़के, महापुरुष श्रेणी के साधु को गंगा में 108 डुबकियां लगानी होती हैं, और इसके बाद वह अवधूत संन्यासी बन जाता है।
कठिन दीक्षा प्रक्रिया के बाद नागा साधु का नया जीवन
अवधूत बनने के बाद साधक को दिगंबर की दीक्षा दी जाती है। यह दीक्षा शाही स्नान से एक दिन पहले होती है। इस प्रक्रिया के दौरान साधक को अखाड़े की धर्म ध्वजा के नीचे 24 घंटे तक अन्न-जल त्यागकर व्रत करना पड़ता है। इसके बाद तंगतोड़ संस्कार किया जाता है, जिसमें तड़के अखाड़े के भाले के सामने आग प्रज्वलित की जाती है और अवधूत पर जल छिड़का जाता है। इसके बाद उसके जननांग की एक नस खींच दी जाती है, जिससे वह नपुंसक हो जाता है। इस संस्कार के बाद सभी साधु शाही स्नान के लिए जाते हैं। गंगा में डुबकी लगाने के बाद वे नागा साधु बन जाते हैं।