जाति जनगणना: 2018 में जर्नैल सिंह केस में सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी के लिए पिछड़ेपन को साबित करने की शर्त हटा दी, लेकिन प्रतिनिधित्व की कमी और आंकड़ों की पेशकश अब भी जरूरी मानी गई।
🧾 जाति जनगणना और आरक्षण की सीमा: नई बहस की शुरुआत?
भारत में वर्षों से आरक्षण बढ़ाने की मांग सुप्रीम कोर्ट की 50% सीमा से टकराती रही है। लेकिन केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित जाति जनगणना इस बहस को नया मोड़ दे सकती है।
🔹 1992 – इंदिरा साहनी केस: सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की पीठ ने कहा कि आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता।
🔹 OBC को 27% आरक्षण दिया गया, लेकिन क्रीमी लेयर को बाहर रखने और “असाधारण परिस्थितियों” में ही सीमा पार करने की छूट दी गई।
🔸 इसके बाद कई राज्यों ने इस सीमा को पार करने की कोशिश की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा आंकड़ों और ठोस प्रमाणों की मांग की।
⚖️ प्रमुख कानूनी फैसले:
- 2006 – नागराज केस: SC/ST को प्रमोशन में आरक्षण वैध, पर तीन शर्तें —
- पिछड़ापन
- प्रतिनिधित्व की कमी
- प्रशासनिक दक्षता पर प्रभाव
- 2018 – जर्नैल सिंह केस: पिछड़ापन साबित करने की आवश्यकता हटी, लेकिन प्रतिनिधित्व और डेटा जरूरी।
- 2014 – जाट आरक्षण खारिज: केंद्र की ओबीसी में शामिल करने की कोशिश सुप्रीम कोर्ट ने रोकी।
- 2018 – मराठा आरक्षण अस्वीकार: क्योंकि इससे कुल आरक्षण 50% से ऊपर जा रहा था।
🛑 सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सिर्फ केंद्र ही SEBC (सामाजिक-आर्थिक पिछड़ा वर्ग) को परिभाषित कर सकता है। इस फैसले के बाद अनुच्छेद 342A में संशोधन कर राज्यों को फिर से SEBC पहचानने का अधिकार मिला।
💼 EWS आरक्षण – 2019:
केंद्र ने संविधान में संशोधन कर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को 10% आरक्षण दिया, जो 50% सीमा से ऊपर था।
➡️ 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे वैध ठहराया, कहा – “आर्थिक आधार पर आरक्षण संभव है।
📊 अब जातीय जनगणना क्यों अहम है?
यह जनगणना वास्तविक प्रतिनिधित्व और सामाजिक स्थिति के आंकड़े देगी। इसके आधार पर भविष्य में
✅ नीति-निर्धारण आसान होगा
✅ सुप्रीम कोर्ट के मानकों को पूरा किया जा सकेगा
✅ और संभवतः आरक्षण सीमा को पुनः परिभाषित किया जा सकेगा।