अमेरिका को चुनौती देना भारत के किसी भी नेता के लिए आमतौर पर व्यक्तिगत जोखिम नहीं होता। जैसे ही विदेशी दबाव की बात आती है, देश एकजुट होकर उस नेता के साथ खड़ा हो जाता है, जिसे वे इस संघर्ष में अपना अग्रदूत मानते हैं
एम. एस. स्वामीनाथन की जन्मशताब्दी कार्यक्रम का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आश्वासन दिया कि भारतीय किसानों, मछुआरों और डेयरी से जुड़े लोगों के हितों की रक्षा वे हर परिस्थिति में करेंगे — चाहे इसके लिए कितना भी जोखिम उठाना पड़े, चाहे कितनी भी कीमत चुकानी पड़े, और चाहे उन्हें स्वयं किसी भी प्रकार का व्यक्तिगत नुकसान क्यों न सहना पड़े। लेकिन सवाल यह है — यह कीमत वे और देश को किस रूप में चुकानी पड़ सकती है?
भारत के लोग अपनी संप्रभुता को किसी भी निजी सुविधा या भौतिक आवश्यकता से ऊपर मानते हैं। राष्ट्रीय स्वाभिमान की खातिर वे अस्थायी नौकरियों के नुकसान को भी चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं। सोचिए — झींगा पालन करने वाले किसान, बासमती और मसाले उगाने वाले, कालीन बुनकर, होजरी उद्योग से जुड़े कामगार, और गुजरात के हीरे–रत्न काटने–जोड़ने व सोने के आभूषण बनाने वाले कारीगर — इन सभी पर 50% टैरिफ (शुल्क) का सीधा असर पड़ने वाला है।
किसानों के लिए नया मोड़ – कृषि सुधार या राजनीतिक जोखिम?
भारत अमेरिका को बड़े पैमाने पर बासमती चावल, मसाले, फल-सब्जियां, पैकेज्ड फूड, चाय और कॉफी निर्यात करता है जिसकी कीमत 6 अरब डॉलर से अधिक है। यदि इन पर 50% टैरिफ लगाया गया तो यह व्यापार टिकाना मुश्किल होगा और इसका सीधा फायदा पड़ोसी देशों को मिलेगा। सबसे अधिक असर कमजोर और हाशिये पर खड़े वर्गों पर पड़ेगा—चाहे वे किसान हों, मछुआरे, बुनकर, या कारीगर।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एम. एस. स्वामीनाथन की जन्मशताब्दी कार्यक्रम में वादा किया कि किसानों, मछुआरों और डेयरी क्षेत्र से जुड़े लोगों के हितों की रक्षा वे हर कीमत पर करेंगे—चाहे इसके लिए उन्हें निजी नुकसान क्यों न उठाना पड़े। लेकिन असली सवाल है—इसकी कीमत देश और नेता को कितनी चुकानी पड़ेगी?
भारत में अमेरिका को चुनौती देना राजनीतिक रूप से जोखिम भरा नहीं माना जाता, क्योंकि विदेशी दबाव की स्थिति में जनता आमतौर पर अपने नेता के पीछे खड़ी हो जाती है। लेकिन इस बार चुनौती अलग है—क्योंकि यहां असली जोखिम कृषि सुधारों में है।
इतिहास से सीख:
1960 के दशक में इंदिरा गांधी ने हाइब्रिड बीजों के प्रयोग का जोखिम उठाया और भारत को भूखमरी से बाहर निकाला। 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी ने जीएम कपास को मंजूरी दी, जिससे कपास उत्पादन में 193% की बढ़ोतरी हुई और भारत निर्यातक बना।
वर्तमान स्थिति:
आज भारत कपास, सोयाबीन और मक्का में पिछड़ रहा है, जबकि 78 देश 22 करोड़ हेक्टेयर में जीएम फसलें उगा रहे हैं। चीन और ब्राज़ील हमसे कई गुना ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं। डर और नीतिगत जड़ता के कारण हम आयात पर निर्भर हैं—खासकर खाद्य तेल, दालें और उर्वरक में।
चुनौती और अवसर:
- कृषि सब्सिडी पर भारी खर्च लेकिन सीमित परिणाम।
- मुफ्त बिजली और अक्षम वितरण व्यवस्था से ऊर्जा क्षेत्र पर बोझ।
- उर्वरक की कालाबाज़ारी और आयात पर निर्भरता।
मोदी के सामने विकल्प:
ट्रंप के टैरिफ से पैदा हुई चुनौती को कृषि क्रांति में बदला जा सकता है—जैसे हरित क्रांति ने भारत की खाद्य आत्मनिर्भरता बदली थी। यह सुधार राजनीतिक रूप से कठिन और जोखिम भरा है, लेकिन इससे किसानों की आय दोगुनी हो सकती है और भारत वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धी बन सकता है।
बड़ा जोखिम = बड़ा इनाम।
सवाल है—क्या प्रधानमंत्री यह जोखिम लेने को तैयार हैं?