पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सदस्यता रद्द करने वाले चर्चित मुकदमे में लालगंज निवासी व पूर्व मंत्री गिरीश नारायण पांडेय एक अहम गवाह रहे। उन्होंने तमाम दबाव और प्रलोभनों को दरकिनार करते हुए साहसपूर्वक गवाही दी, जो पूरे मामले में निर्णायक साबित हुई।
आपातकाल की कहानी: जब एक गवाही ने हिला दी सत्ता
आपातकाल को बीते अब 50 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन उस दौर की पीड़ा आज भी लोगों के जेहन में ताजा है। जिन लोगों ने उस समय की यातनाएं झेली हैं, वे आज भी उन जुल्मों को याद करके सिहर उठते हैं। नागरिक अधिकार पूरी तरह से खत्म कर दिए गए थे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छिन ली गई थी। पुलिस बिना कारण किसी को भी उठाकर जेल में डाल देती, और परिजनों को सूचना तक नहीं मिलती थी। थाने यातनागृह बन चुके थे, जहां तरह-तरह की प्रताड़नाएं दी जाती थीं। जबरन नसबंदी जैसी अमानवीय घटनाएं भी आम हो गई थीं।
इसी दौर की एक घटना ने देश की राजनीति को झकझोर दिया। रायबरेली से 1971 में भारी बहुमत से जीतीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को समाजवादी नेता राजनारायण ने हाईकोर्ट में चुनौती दी। इस केस में लालगंज निवासी और पूर्व मंत्री गिरीश नारायण पांडेय एक अहम गवाह के रूप में सामने आए। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़े थे। उनके बेटे अनूप पांडेय बताते हैं कि उस समय कांग्रेस के जिला और प्रदेश स्तर के नेताओं ने उन्हें प्रलोभनों से भरपूर प्रस्ताव दिए—पैसे, टिकट, यहां तक कि राज्यसभा की सदस्यता तक—but उन्होंने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
गिरीश पांडेय ने इंदिरा गांधी के खिलाफ गवाही दी कि चुनाव प्रचार में सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग किया गया था। उन्होंने यह भी बताया कि इंदिरा गांधी के सचिव यशपाल कपूर, जो सरकारी कर्मचारी थे, पूरे चुनाव अभियान का संचालन कर रहे थे। हाईकोर्ट में करीब डेढ़ घंटे तक उनकी गवाही पर जिरह हुई, और अंततः इसी गवाही के आधार पर इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया गया।
यह वही फैसला था, जिसके बाद देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई—एक ऐसा अध्याय, जो आज भी लोकतंत्र के इतिहास में सबसे काले दिनों के रूप में याद किया जाता है।
गिरीश नारायण पांडेय: जिन्हें ‘खतरनाक आदमी’ बताकर जेल भेजा गया था, आपातकाल में रहे 11 महीने कैद
आपातकाल के 21 महीनों में देश ने कई जख्म झेले, और उन दिनों गिरीश नारायण पांडेय भी सत्ता की क्रूरता के शिकार बने। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और यूपी के पूर्व मंत्री रहे गिरीश नारायण पांडेय उस समय तहसील कार्यवाह की भूमिका निभा रहे थे।
उनके बेटे अनूप पांडेय बताते हैं कि 3 जुलाई 1975 को रात के वक्त जब उनके पिता लालगंज स्थित घर में सो रहे थे, तब दरोगा उन्हें यह कहकर बुलाने आया कि एसडीएम साहब बात करना चाहते हैं। पहले उन्होंने सुबह आने की बात कही, लेकिन दरोगा के बार-बार कहने पर वे चल दिए। जैसे ही वह घर से बाहर निकले, उन्होंने देखा कि दर्जनों पुलिसकर्मी पहले से तैनात थे। फिर भी वह गाड़ी में बैठने के बजाय पैदल ही थाने पहुंचे।
थाने में एसडीएम ने उन्हें देखकर कहा, “आप मिल गए, ये बहुत राहत की बात है।” डीएम और एसपी ने उन्हें “खतरनाक आदमी” बताया था। रातभर थाने में रखने के बाद उन्हें सुबह एक निजी बस से रायबरेली भेजा गया और शाम 3 बजे जेल में डाल दिया गया। वे लगभग 11 महीने जेल में बंद रहे।
जेल में चाय के लिए किया था अनशन
अनूप पांडेय बताते हैं कि जेल में उनके पिता को चाय तक नसीब नहीं हुई। विरोधस्वरूप उन्होंने 24 घंटे का अनशन किया, तब जाकर कैदियों को चाय और नाश्ता मिला। पांच दिन तक परिवार को यह तक नहीं पता था कि वे कहां हैं। उनके खिलाफ झूठी FIR दर्ज की गई, जिसमें लिखा गया था कि वह अपने घर के बाहर पूर्व सैनिकों के साथ बैठक कर रहे थे और शासन के खिलाफ हथियारों के साथ उकसा रहे थे।
जनता ने दिया जवाब, चुनाव में नकारा इंदिरा को
आपातकाल खत्म होने के बाद जब दोबारा चुनाव हुए, तो इंदिरा गांधी ने फिर से रायबरेली से किस्मत आजमाई, लेकिन इस बार जनता ने उन्हें सिरे से नकार दिया।
राजनीतिक सफर और विरासत
बाबरी विध्वंस के बाद गिरीश नारायण पांडेय ने रायबरेली के सरेनी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और दो बार विधायक चुने गए। वे कल्याण सिंह सरकार में कैबिनेट मंत्री भी बने। जनसंघ और भाजपा की विचारधारा के प्रति जीवन भर समर्पित रहे और कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
28 मार्च 2024 को उनका निधन हुआ, और उससे ठीक एक दिन पहले उनकी पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया—जिसने उनके जीवन की एक मार्मिक समाप्ति लिख दी।